पिघलता हिमालय से प्रकाशित पुस्तकें
उपेक्षा अभाव सनातन संघर्ष! पर्वतीय जन-जीवन के ये छोटे-छोटे स्याह-सफेद चित्र कहीं बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करते हैं। लेखक का जिया हुआ यथार्थ, पाठक को अपना यर्थाथ सा लगने लगे, किसी रचना की इससे बड़ी सार्थकता और क्या हो सकती है? विसंगतियों से भरे आज के समाज में क्या-क्या हो रहा है? ईमानदार आदमी का जीना मुश्किल हो गया है! बड़े सहज, स्वाभाविक ढंग से लेखक ने इन प्रश्नों को रेखाकिंत करने का प्रयास किया है ।
‘गलत-गलत’ का विजय तथा डाॅ0 यमुना प्रसाद, ‘सख्त हाथों की जकड़न’ का ‘मैं’, ‘परिचय’ का घनश्याम, ‘लछुलि दी’, ये सभी पात्रा कहीं अपने ही आस-पास के जैसे हैं, जिन से किसी न किसी रूप में रोज ही हमारा साक्षात्कार होता है। लेखक ने बड़े निष्प्रह-भाव से सामाजिक विडम्बनाओं को उजागर करने का प्रयास किया है। कहानी ‘बसन्ती’ की नायिका बसन्ती की वेदना, आज के रू-सजय़ीवादी समाज की अव्यवहारिक मान्यताओं की बड़ी बारीकी से ध्ज्जियाॅं उड़ाती हुई, कई प्रश्न-चिन्ह खड़े कर जाती है
‘उल्लुओं का बसेरा’ किटुलि आमा की ही नहीं, ऐसी कई वेदनाओं की तसवीर हैं, जो घर-परिवार में सब कुछ होते हुए भी, कुछ न होने का अभिशाप लेकर इस दुनिया से चले जाते हैं। रोते पहाड़ों की यह व्यथा आज के पर्वतीय -जीवन का अभिशाप बन कर उभर रही है। ‘बच्चों, सब करना, उस भीड़-भाड़ में नौकरी करने मत जाना! खो जाओगे रे, वहां खो जाओगे!’ सचमुच में रोजी-रोटी के चक्कर में खो गई हैं, कई पीढ़ियां और खो गये हैं, बूढ़ी निगाहों में उपजे सुनहरे सपने! और पहाड़ों में शेष रह गये हैं, भुतैनी अवशेष!
‘मुहल्ले के लोग’ तथा ‘झिर्री के पार’ भी ऐसी ही कहानियाॅं हैं, जो कहानियाॅं कम, और दस्तावेज अधिक हैं।
मदिरा की बा-सजय़ में किस तरह से डूब गये हैं पहाड़, इसका दर्द भरा चित्रा उभर कर आया है- ‘जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम’ में। जहां आये दिन शराब के कारण मौतें होती रहती हैं।
‘तुम पूछ रहे थे न कि इन्होंने सिर क्यों मुड़ाए हैं? इस गांव के लड़के सिर पर बाल जमने ही नहीं देते। बाल जमे नहीं कि कोई न कोई मौत हो जाती है...........।’
विकास के नाम पर यह विनाश-लीला दिल को दहला देती है।
आनन्द उप्रेती की ये काहनियाॅं प्रारम्भिक होते हुए भी कहीं प्रोढ़ हैं। कुछ नई सम्भावनाएॅं जगाती हैं। लेखक में लिखने की क्षमता ही नहीं, अपनी एक दृष्टि भी है।
हिमांशु जोशी
नई दिल्ली
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